इस स्थान विशेष पर शब्दों को प्रकाशित करने की सीमितता के कारण इस कथा का प्रथम भाग कृपा कर " देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुंदर और श्री राधा संवाद : भाग १ " के निम्नलिखित लिंक पर क्लिक कर पढ़े.....
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तत्पश्चात श्री राधा जी ने एक लम्बी सांस लेते हुए देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर जी से पुनः इस प्रकार कहा :
“अरी सुंदरी सखी!! मैं और श्री श्यामसुन्दर परस्पर एक दूसरे के चित्त में नित्य विराजमान रहते है, इसलिए हम दोनों एक दूसरे के मन कि बात जानते हैं, हम दोनों एकात्मा हैं, अतः एकात्मा का दो होना कतई संभव नहीं हैं… हम दोनों देह से तो अलग अलग है किन्तु आत्मा से एक ही हैं….जिस प्रकार शक्ति का शक्तिमान से, अग्नि का उसकी ज्वलनशीलता से, सूर्य का उसके किरणों से अलग होना संभव नहीं, ठीक उसी प्रकार हम लोगो में कोई भेद नहीं देखा जा सकता.…हम एक दूसरे में ही निहित हैं… परन्तु परस्पर आस्वदनागत विचार से हमदोनो ने मूर्त रूप में राधा और कृष्ण नाम से अलग अलग रूप में दिखते हैं… क्योकि बिना मूर्त रूप के हम दोनों विभिन्न लीलाओ का आस्वादन नहीं कर सकते… मेरे ही हृदय में पूर्णरूप से श्री श्यामसुंदर विराजमान रहते है और श्री श्यामसुन्दर के हृदय में मैं पूर्णरूप से विराजमान रहती हूँ…”
ऐसा कह श्री राधा जी ने देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर से फिर से कहा :
“अरी रमणी !! मेरी सखी !! आज मैंने अपने हृदय कि इस प्रेमरूप अति गोपनीय बातो को तुम्हारे सामने प्रकट किया हैं…..यह तुम्हारे संदेह रूपी अंधकार को सदा सदा के लिए दूर कर देगा.…तुम सदैव इसे अपने हृदय में ही धारण करना और कभी बाहर प्रकाशित मत करना……"
देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर ने बड़ी ही चपलता से पुनः कहा :
“अरी राधिके!! तुमने जो कुछ भी कहा, मैंने उन सभी बातो को अपने हृदय में धारण कर लिया है…..किन्तु मेरा चित्त बहुत ही चंचल और शठ हैं, वह तुम्हारे कथन की अवश्य ही परीक्षा करना चाहता हैं….इस विषय में मैं क्या करूँ … अरी सखी !! तुम तो यहाँ बैठी हो....और तुम्हारा वो निर्दयी प्रेमी गोकुल में गैया चराने वन में गया होगा.... यद्यपि मुझे तुम दोनो कि एकात्मा और एकप्राणता पर पूर्ण विश्वास कर लिया परन्तु यह बात परीक्षा बिना प्रमाणित नहीं हो सकती....इसलिए हे सखी….तुम शीघ्र ही अपने उस प्रियतम का यहाँ पर आगमन करवाओ…..तुम्हारे स्मरण मात्र से अगर वो यहाँ आ जायेगा तो तुम दोनों का एकात्मा होना यह ज्ञान मुझे सर्वदा सुख प्रदान करेगा....”
देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर ने पुनः कहा :
“अरी सखी!! यद्यपि तुम अभी अपनी ससुराल में हो अगर तुम्हे अपने प्रियतम को यहाँ बुलाने में कुछ शंका हो तो इसमें मेरा कोई विवाद नहीं हैं….फिर भी हे कृष्ण प्रिये!! मेरे अनुरोधवश तुम केवल एक बार श्री श्यामसुन्दर का स्मरण करो, वे यहाँ पधारे तो मैं उन्हें देखकर सुखी हो जाउंगी"
देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर से इसप्रकार प्रार्थना किये जाने पर वृषभानु दुलारी हमारी प्रिय श्री राधा जी इस प्रकार कहने लगी :
"अरी सखी!! तुम क्यों मुझे उपहास का पात्र बनाना चाहती हो….तुमने जो कहा अगर मैं वह न कर सकी तो मेरा प्रेम लज्जित हो जायेगा और मैं चिरकाल तक दुखी हो जाउंगी, अच्छा ठीक है अगर मेरे प्रेम में कोई त्रुटि नहीं है तो मेरा प्रियतम मेरी करुण पुकार सुन जरुर अपना दरस दिखाने आएगा..”
ऐसा कह श्री राधा जी ने अपने दोनों नेत्रो को बंद किये और ध्यानमग्न हो श्री श्यामसुन्दर का चिंतन करने लगी और इस प्रकार मन ही मन में कहने लगी :
“हे श्यामसुन्दर…हे कृपामय….हे प्राणनाथ…..हे सत्य और मिथ्या के साक्षीस्वरुप…हे मेरे उपास्य एकमात्र देव….. ‘राधा कृष्ण सर्वथा ही एकात्मा हैं’, अगर ये सत्य है तो हे कृष्ण…..अभी तत्क्षण मेरी इस सखी को सुख प्रदान करने के लिए मेरे नेत्रो के समक्ष साक्षात् प्रकट हों ……”
ऐसा कह श्री राधा जी सम्पूर्ण रूप अपने चित्त को श्री कृष्ण में लगा कर मौन हो.....आँखे बंद कर ध्यानमग्न हो गयी……
जब देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर ने श्री राधा जी को ध्यानमग्न देखा तो उन्होंने सहसा ही उस रमणी स्त्री वेष का परित्याग कर वहां उपस्थित समस्त सखियों को अपनी भृकुटी और नयनों के इशारे से समझा अपने पक्ष में कर लिया…और सहसा ही अपनी प्रेयसी श्री राधा जी को आलिंगन करने लगे और श्री कृष्ण का सुमधुर स्पर्श पा श्री राधा जी के समस्त अंग रोमांचित हो गए थे नेत्रो से अश्रुओं की धारायें बहने लगी….उन्होंने अपने ध्यान में ही समझ लिया कि श्री श्यामसुन्दर पधार चुके हैं…..उसके बाद कुछ क्षण पश्चात श्री राधा जी ने अपने कमल नयनों को खोला और श्री कृष्ण को साक्षात् सम्मुख देख….लज्जित हो अपने साडी के आँचल से अपने मुख को आच्छादितकर लिया…और मुख से कुछ न बोली…
तत्क्षण श्री राधा जी की परम सखी श्री ललिता जी जिन्हें पता चल गया था कि वो देवकन्या कोई और नहीं ये श्यामसुन्दर ही थे…इस प्रकार श्यामसुन्दर से मधुर कटाक्ष करते हुए कहने लगी :
“अरे!! तुम यहाँ आश्चर्यचकित रूप से दूसरों से छिपकर कैसे आ गए…एक मात्र कुलवधुओ के प्रवेश योग्य इस अन्तःपुर में जहाँ वायु तक प्रवेश नहीं कर सकती…तुमने निर्भय हो किस प्रकार प्रवेश पा लिया?...तुम सचमुच बहुत ही साहसी हो…"
श्री ललिता जी ने पुनः कहा :
“अरे!! जिनकी रक्षा हम सभी सखियाँ अपने प्राणों से बढ़कर करती रहती हैं…और जो अभी अभी अपना स्नान समाप्त कर सूर्य देवता की पूजा करने के लिए आँख मुंदकर आसन पर बैठी है, उसी वृषभानु नंदिनी श्री राधा का तुम बलपूर्वक स्पर्श कर रहे हो क्या तुम्हे सूर्यदेवता का भय नहीं…..क्या तुम्हे लज्जा नहीं आती……?अरे मोहन!! यह तुम्हारा सौभाग्य है कि आज राधा की सास जटिला, ननद कुटिला और उसका पति अभिमन्यु घर में नहीं हैं.…आज तुमने सकुशुल पूर्वक ही इस विपत्ति से रक्षा पायी हैं…..”
श्री ललिता जी के मुख से इस प्रकार का विनोदमय कटाक्ष सुन श्री श्यामसुन्दर न कहा :
“अरी ललिते!! इसमें मेरा कोई अपराध नहीं हैं….मैं तो अपनी गौशाला के प्रांगणमें खेल रहा था....कि मुझे राधा कि याद आ गयी और उसी समय कोई देवता ही मुझे यहाँ पर लेकर आये है…..”
इतने में ही श्री राधा जी को उस देवकन्या कि याद आ गयी और उन्होंने ललिता जी से पूछा :
“अरी ललिते!! वो देवी इस समय कहाँ हैं…मेरे स्मरण मात्र से ही श्री श्यामसुन्दर का आगमन यहाँ हुआ हैं... यह देख उसे मेरे द्वारा कहे गए उन वचनों पर विश्वास हुआ कि नहीं?…"
यह सुन श्री ललिता जी ने कहा :
“अरी प्यारी सखी राधा!! वो देवी तो तुम दोनों का मिलन देख संशय रहित हो गयी... और उसकी मन की पीड़ा समाप्त हो गयी…और इस समय वह इसी घर में उस कक्ष में बैठी हुई हैं….”
श्री राधा जी और श्री ललिता जी का ये संवाद सुन श्री श्यामसुन्दर ने कहा:
“अरी ललिता!! तुम लोग किस देवी की बात कर रही हो…जरा मुझे भी उससे परिचय करवाओ..”
ललिता जी ने इस बात का कोई उत्तर न दिया…..
श्री श्यामसुन्दर ने पुनः कहा :
“अहो!! समझ गया…सौभाग्य से आज बहुत ही कम समय में तुम लोगो की धूर्तता मैं समझा गया हूँ,…..निश्चय ही कोई आकाश चारिणी देवी का तुम्हारे घर में आगमन हुआ होगा…तुम्हारी सखी राधा ने उससे कोई वशीभूत मंत्र सीख लिया होगा और उसे मंत्र का प्रयोग कर उसने मुझे बलपूर्वक यहाँ बुलाया हैं…अब तो तुम्हारी सखी राधा मुझे वशीभूत कर प्रतिदिन बुलाकर अपना दास बनाना चाहती हैं...”
ललिता से ऐसा कह श्री श्यामसुन्दर ने श्री राधा जी कि और मुख करके इस प्रकार कहा :
“ अरी मेरी प्राण प्रिये राधे!! उस देवी से मुझे भी मिलवाओ...मैं भी उससे वह अद्भुत मंत्र प्राप्त करना चाहता हूँ.... अतः मंत्र दिलवाने में मेरी सहायता करो…मैं तुम्हारे शरणागत आया हूँ….”
श्री राधाजी ने तत्क्षण कटाक्ष करते हुए उत्तर दिया :
‘अरे कृष्ण…..तुम्हारी वंशी तो तुम्हारे हाथो में ही हैं…उसके रहते तुम्हे और किसी मंत्र की क्या आवश्कता हैं…तुम्हारी वंशी कि मधुर ध्वनि को सुन तो समस्त रमणियाँ तुम्हारे समीप खिचीं चली आती हैं…”
श्री श्यामसुन्दर ने कहा :
“अरी राधा!! तुम तो मेरी वंशी को कभी कभी छुपा देती हो….उस समय तो मेरे पास कुछ भी नहीं होता…इसलिए यह मंत्र मेरे काम आएगा….”
श्री श्यामसुन्दर और श्री राधा के इस संवाद को सुन सहसा ललिता जी ने कहा :
“ अरे कृष्ण!! वह देवी तो तुम्हे देख लज्जा से घर में छिप गयी है….वह तुम्हे मंत्र क्यों बताएगी….फिर भी अगर तुम उस मंत्र को सिखने के लिए उत्कंठित हो तो स्वयं उस कक्ष में प्रवेश करो….यदि उस देवी कि कृपा होगी तो तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी…”
यह सुन श्री श्यामसुन्दर ने उस कक्ष के अंदर प्रवेश किया……
यह सब देख श्री राधा ने श्री ललिता जी से कहा :
“अरी ललिते!! यह तुम क्या कह रही हों….मुझे स्पष्ट बताओ…मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा हैं…..”
श्री ललिता जी ने कहा :
“सखी राधा!! तुम संकोच मत करो….चलो हम भी उस कक्ष में चल कर देखती है…श्री श्यामसुन्दर के साथ तुम्हारी उस परम श्यामा सखी को……और तुम्हारी उस सखी और कृष्ण के मिलन का दर्शन करेंगी…”
जब सभी ने कक्ष के अंदर प्रवेश किया तो वहाँ तो केवल श्री श्यामसुन्दर के अलावा कोई न था....यह देख श्री ललिता ने बहुत ही विनोदमय स्वर के साथ कहा :
“अरी राधा!! लगता है वो देवी इस स्थान से अंतर्धयान हो गयी है…और बाहर चली गयी है….हमलोग शीघ्र ही उन्हें ढूंढने के लिए जा रही हैं…तुम स्वयं ही श्री श्यामसुन्दर को उस मंत्र का ज्ञान दो ….”
यह कह समस्त सखियों उस कक्ष से बाहर निकल प्रस्थान कर जाती हैं….
सही कहा जाये तो श्री कृष्ण और श्री राधा का पवित्र प्रेम का यह रिश्ता हमे हमेशा निःस्वार्थ और निश्छल प्रेम की शिक्षा प्रदान करता है….श्री राधा, श्री श्यामसुन्दर की इन लीलाओ का माधुर्य और लालित्य का श्रवण करने से ही समस्त भक्त जनोंके मन से काम रूपी विकार का तत्क्षण नाश होने में कोई संशय व्याप्त नहीं रहता……
श्री धाम वृन्दावन के श्री राधा श्यामसुंदर जी का यह अनुपम वेष हमे इसी दिव्य कथा की स्मृति कराता है...
!! जय जय देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर जी !!
!! जय जय श्री राधा रानी जी !!
!! जय जय श्री राधा रानी जी !!
इस दिव्यलीला में देवकन्या वेषधारी श्री श्यामसुन्दर जी और श्री राधाजी के संवाद में कई बार उनकी ही श्रृंगार लीला के बारे में चर्चा हुई हैं…उस दिव्य लीला के बारे में जानने के लिए निम्नलिखित लिंक पर क्लिक करे :
श्री राधा श्यामसुन्दर जी की इस दिव्य लीला का मधुर चित्रण श्री धाम वृन्दावन के एक बहुत ही प्रसिद्ध और रसिक संत श्री विश्वनाथ चक्रवती ठाकुर जी बहुत ही अलौकिक ढंग से अपने एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ “श्री प्रेम सम्पुट“ में सविस्तार पूर्वक किया है….मैंने भी श्री भगवान की इस दिव्य लीला को श्री धाम वृंदावन के सुप्रसिद्ध रसिक संत श्री विश्वनाथ चक्रवती ठाकुर जी के ग्रन्थ "श्री प्रेम सम्पुट" में पढ़ा था.... इस कथा को विस्तार से पढने के लिए आप सभी श्री विश्वनाथ ठाकुर जी रचित "श्री प्रेम सम्पुट नामक" ग्रन्थ पढ़ सकते हैं.... मैंने तो प्रेमवश यहाँ आप सभी लोगो के साथ इस सुधा रस के कुछ अंश आप सभी को बाटने हेतु प्रकाशित किया है……
श्री श्री विश्वनाथ चक्रवती ठाकुर जी महाराज
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This Holy Katha Source is "Shri Prem Samput"
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Shri Vishwanath Chkravati Thakur Ji Maharaj
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Shri Vishwanath Chkravati Thakur Ji Maharaj
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