!! ॐ !!


Monday, June 14, 2010

!! गायिका वेषधारी श्री श्यामसुन्दर जी !! : Shri Shyamsundar Ji Disguised as a Female Singer

श्री श्यामसुन्दर श्री राधारानी को गायिका के वेष में  संगीत सुनाते हुए


ये है हमारे प्रिय श्री धाम वृन्दावन के श्री श्यामसुंदर जी, एक गायिका के भेष में.....श्री श्यामसुंदर जी यह भेष हमें एक बहुत ही सुन्दर लीला जो की माधुर्य, लालित्य और हास्य रस से परिपूर्ण है, उसकी स्मृति कराता है....जिसे सुन सभी प्रभु प्रेमी का हृदय आनंद के अथाह सागर में गोते लगाने लग जाता है...


आप सभी को पता है की जावट गाँव में जटिला नाम की एक गोपी रहती थी, जिसके पुत्र अभिमन्यु के साथ श्रीराधा जी का विवाह भगवती योगमाया के निर्देशनुसार वृषभानु जी ने करवा दिया था... यद्यपि अभिमन्यु जी को श्री राधाजी का पति माना जाता है परंतु भगवती योगमाया के प्रभाव से वो तो श्री राधा जी की परछाई का स्पर्श नहीं कर सकता था.... ऐसे भी अभिमन्यु अपने नित्य प्रतिदिन के दिनचर्या में व्यस्त रहते और शर्म के कारण श्रीराधा जी से ज्यादा बात भी नहीं करते थे.....श्री राधा जी की सास जटिला और ननद कुटिला घर के काम में हमेशा व्यस्त रहा करती थी....


श्री श्यामसुंदर और उनकी परा-शक्ति श्री राधारानी एक दुसरे से कतई भी भिन्न नहीं है.....वे दो शारीर और एक प्राण है, जिस प्रकार सूर्य को उसकी रौशनी से, अग्नि को उसकी ज्वलनशील शक्ति से कभी भी अलग नहीं किया जा सकता....उसी प्रकार श्री राधा श्यामसुंदर एक दुसरे में ही निहित हैं.....ऐसा कहा जाता है कि रावण ने कभी भी वास्तविक श्री सीता जी का स्पर्श तक नहीं किया था, उसने तो उनकी परछाई का अपहरण कर लंका में रखा था....ठीक उसी प्रकार हम अभिमन्यु और श्री राधा जी के रिश्ते को देख सकते है.....


आइये अब हम उस दिव्या लीला का रसास्वादन करे, जिसमे स्वयं भगवान श्री श्यामसुंदर ने एक गायिका कलावली का भेष धारण किया था....


रूठी हुई श्री राधा जी को मनाते हुए श्री श्यामसुन्दर


एक बार श्री राधारानी, श्री श्यामसुंदर जी से रूठ जाती और श्री श्यामसुंदर उनको अपनी मीठी-मीठी बातो और उपहारों से मनाने की जी तोड़ कोशिश करते है, लेकिन वो नहीं मानी...तब हार कर श्री श्यामसुंदर जी, श्री राधा जी की प्रिय सखी कुन्दलता के पास जाते है....


श्री कुन्दलता सखी के पास जाकर श्यामसुन्दर उनको इस स्थिति के बारे में विस्तार से बताते हुए कहते है :
हे कुन्दलता....देखो न तुम्हारी सखी राधा मुझसे रूठ गयी हैं.....मुझ से बात भी नहीं कर रही... मैंने बहुत तरह से उसे मनाने का प्रयत्न किया परन्तु वो नहीं मानी....तुम ही बताओ मैं अब क्या करू ???



पूरी स्थिति के बारे में सुनने के बाद कुन्दलता जी ने कहा -
"अब तो राधा को मनाना मुश्किल है....पहले तो उसके व्यथित मन को शांत कर प्रसन्न करना पड़ेगा....श्री राधा को संगीत बहुत ही प्रिय है.....एक काम करो श्याम.....क्यों न तुम एक गायिका का भेष धारण कर स्वयं ही राधा को प्रसन्न कर लो....और फिर उसके बाद तुम उसे उचित समय देख सब कुछ सत्य सत्य बता देना...."


कुन्दलता के द्वारा सुझाये गए इस प्रस्ताव को सुनने के पश्चात् श्री श्यामसुंदर, एक बहुत ही सुन्दर साड़ी पहन, आँखों में काजल, पैरो में नुपुर और पायल, हाथो में चूडिया पहन और एक सितार ले एक सुन्दर सी गायिका का भेष धारण कर, कुंदलाता के साथ श्री राधा जी के ससुराल जावट गाँव की ओर निकल पड़ते है.....ओर इधर जावट गाँव में एक निकुंज में श्रीराधा रानी अपनी सखियों के साथ बैठी हुई थी....

गायिका कलावली का वेष धारण कर श्री श्यामसुन्दर श्री राधा जी के समक्ष प्रस्तुत होते हैं


और जब श्रीराधा, कुन्दलता को एक बहुत ही सुन्दर स्त्री के साथ आती हुए देखी तो उसे इसप्रकार कहने लगी....
"अरी ओ कुन्दलता !!! आओ....आओ... अरी तुम आज अचानक कैसे आई?.. और यह तुम्हारे साथ चंचल चितवन वाली रमणी कौन हैं?? ये कहाँ से आई है? और इसका नाम क्या हैं?"


कुन्दलता ने उत्तर दिया :
"ओ राधा, इसका नाम कलावली हैं.....तुम्हारा नाम और यश सुनकर मथुरा से तुमसे मिलने के लिए आई है.....ये एक गायिका है...इसकी कोयल सी आवाज़ सुनकर तो स्वयं देवगुरु वृहस्पति भी अचंभित हो गए थे.....तुम्हे ज्यादा क्या बोलू राधा....जब तुम स्वयं सुनोगी तो तुम्हे पता चलेगा...."


कुंदलता से इस प्रकार सुन श्री राधा ने कुंद लता से पुनः पूछा :
"अरी कुंदलता इसने यह गान विद्या किससे सीखी हैं... ?"





कुंदलता ने उत्तर दिया:
"स्वयं देवगुरु बृहस्पति से !"





विस्मित भाव से श्री राधा ने कुंद लता से पुनः पूछा :
"अरी सखी !! देवगुरु वृहस्पति के दर्शन इस सुन्दर रमणी कलावली को कैसे हुए..??"





सखी कुंदलता ने उत्तर दिया :
"हे मेरी प्यारी सखी राधा !! एक बार मथुरा के ब्राह्मणों ने मथुरा में ही एक महान यज्ञ का आयोजन किया था...जिसमे देवलोक से देवगुरु बृहस्पति भी उस यज्ञ में सम्मलित होने के लिए आये थे... एक  दिन देवगुरु बृहस्पति ने एक सभा में एक गान किया था...उस समय ये कलावली भी उस सभा में बैठी थी.... और इस कलावली ने बृहस्पति के द्वारा गए गए उस गान को अपने चित्त में धारण कर लिया..और दुसरे दिन उसी गान को गाने लगी "


कुंदलता ने पुनः कहा :
"सखी राधा !! जब देवगुरु वृहस्पति ने उसके इस गान को सुना तो वो विस्मित होके एक ब्राह्मण से पूछने लगे की यह गान कौन नारी गा रही है... जिसने मेरे द्वारा गया गान एक बार में सुनकर सीख लिया हैं...इसे मेरे समीप लाओ...."



कुंदलता ने पुनः कहा :
"अरी सखी राधा!! कुछ ही समय पश्चात इस कलावली को देवगुरु बृहस्पति के समीप लाया गया और देवगुरु बृहस्पति ने इस कलावली से कहा -  'ओ कोयल सी आवाज़ को धारण करने वाली स्त्री, मैं तुम्हे गन्धर्व विद्या का अध्यन करवाऊंगा, क्योकि तुम्हारी स्मरण रखने और समझने के मानसिक शक्ति बहुत ही उच्च कोटि की  हैं....' "

श्री राधा कुंदलता की यह सब बाते विस्मित होकर तन्मयता से सुन रही थी...


कुंदलता ने पुनः कहा :
"अरी राधा प्यारी !! उसके पश्चात देवगुरु बृहस्पति ने इस कलावली को एक महीने तक मधुपुरी मथुरा में संगीत की शिक्षा दी और इसे स्वर्ग लोक ले गए और वहा इसे १ वर्ष तक पढ़ाया....यह कलावली स्वर्ग लोक से कल ही मथुरा में आई हैं...और आज यहाँ ब्रज में तुम्हारे समीप आई  हैं ..."



कुन्दलता से इसप्रकार की बात सुन श्री राधा ने उस गायिका कलावली का वेष धारणकर आये श्यामसुन्दर से इसप्रकार कहने लगी :
"ओ सुंदरी कलावली....तुम्हारा रूप लावण्य ने तो मुझे मुग्ध कर ही दिया हैं... अब जरा मुझे अपनी कोयल सी मधुर आवाज़ में कुछ सुनाओ...."




कलावली का भेष में श्री श्यामसुन्दर ने बहुत ही पतली-सी आवाज़ में श्रीराधा जी को कहा :
"ओ वृन्दानेश्वरी श्री राधा !! आप अभी कौन सा राग सुनना चाहोगी?"




श्रीराधा ने कहा :
 "हे सुन्दर रमणी कलावली !! अभी गोधूली बेला है....इसलिए तुम मुझे मालव राग सुनाओ...."




कलावली के वेष में आये श्री श्यामसुन्दर  ने पुनः पूछा  :
"ओ श्रीराधा..और यह राग में किस सुर में सुनाऊ..?"





श्रीराधा ने पुनः कहा :
"सदज सुर में..."





ऐसा सुन.....श्री श्यामसुन्दर ने जिसने कलावली का भेष धारण किया था, श्री राधा से कहा :
"ओ श्रीराधा...इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड में आपके जैसा संगीत में प्रवीण कौन है....फिर भी मैं एक साधरण सी आवाज़ में गाती हूँ...कृपया सुनिए....”



तत्पश्चात.....कलावली कोयल सी पतली और सुमधुर आवाज़ में, जो की स्वयं कोयल और मधुकर को अचंभित कर दे, इस प्रकार गाने लगी : " ता न न न..ता न न न "

श्री राधा ने जब कलावली के द्वारा गाए गए उस मधुर गान को सुना तो उनका हृदय जो की श्री श्यामसुन्दर से रूठा हुआ था, वो द्रवीभूत हो शांतचित हो गया और आँखों से आंसुओ की धराये बहने लगी....


और उसके पश्चात श्रीराधा ने कलावली के वेष में आये श्री श्यामसुन्दर को इस प्रकार कहा :
 "देवी कलावली....तुम्हारा गान बहुत ही मधुर था...तुम्हारा ये गान देवलोक की सुधा को तिरिस्कार करने वाला हैं....तुम्हारे इस गान से मुझे परमशान्ति की अनुभूति हुई है...कोई भी तुम्हारा यह गान सुन लेगा तो वो हमेशा तुम्हारे साथ रहने के लिए उन्मत हो जायेगा...इसलिए हे सुंदरी सुनो...अगर वो नन्द बाबा का पुत्र श्यामसुन्दर तुम्हारा गान एक बार भी सुन लेगा तो वो निश्चित ही प्रतिपल तुम्हारा सानिध्य पाने का प्रयत्न करेगा जैसे की कोई स्त्री अपने गले में हार को पेहेन के रखती है...."

बिचारी श्री राधा जी को क्या पता था की ये वही नन्द का छोरा है जो कलावली का भेष धर उनके सामने खड़ा है....


श्री राधा जी के द्वारा कलावली को इस प्रकार कहने से कुंद लता ने से झट से कहा :
"अरी सखी राधा !! तुम परम साध्वी कलावली से इस प्रकार की अनुचित बाते मत कहो....तुम स्वयं ही इसे कंठ से लगा कर अपना सुमधुर आलिंगन प्रदान करो ... "


तत्पश्चात श्रीराधा जी कलावली बने श्री श्यामसुन्दर को अपने समीप बुलाया और उसे एक गले का बहुमूल्य हार प्रदान करने और उसे आलिंगन करने के लिए जैसे ही आगे बढ़ी....


श्रीराधा जी की परम सखी श्री ललिता जी श्रीराधा के कान में धीरे से इसप्रकार कहने लगी :
"ओ राधा...यह तुम किसे आलिंगन करने जा रही हों...वो और कोई नहीं वही धोखेबाज़ नंदबाबा का छोरा श्यामसुन्दर ही है.. जो की इस सुन्दर स्त्री कलावली का भेष धर कर यहाँ आया है...."



श्रीराधा ने ललिता के कान में धीरे से कहा :
"ओ ललिता...तुम्हारी पैनी दृष्टि ने आखिर उसे पहचान ही लिया....वैसे भी मैं इसे केवल गले के हार देकर ही इसका सम्मान नहीं करना चाहती....अपितु, अभी तो मैं इसे और भी सुन्दर आभूषण और नए और सुन्दर कपड़े उपहार स्वरुप देने वाली हूँ, तुम बस देखते जाओ.."


फिर श्रीराधा ने अपनी एक और सखी रुपमंजिरी से इसप्रकार कहा :
 "अरी रुपमंजिरी....जरा इस रमणी, सुन्दर कलावली के ये पुराने वस्त्र उतार कर मेरे सामने ही बिलकुल नए और सुन्दर सुन्दर रंग वाले वस्त्र तो पहनाओ....मैं इसकी गायन कला से बहुत ही प्रसन्न हूँ, और ये नए वस्त्र उपहार स्वरुप देना चाहती हूँ...."


श्रीराधा के श्रीमुख से इसप्रकार की बात सुन कुन्दलता हतप्रभ हो इसप्रकार श्रीराधे से कहती है :
"ओ राधा....ये तुम क्या कह रही हो...कृपा कर ऐसा मत करो....इस कलावली के वस्त्र तुम अपने सामने मत उतरवाओ....इससे उसको शर्म आएगी और व्यर्थ ही परेशान होगी....तुम्हे जो देना है इसे यही दे दो...और इसे घर जाने दो..ये वही अपन घर में पेहेन के देख लेगी...."


श्रीराधा ने कुन्दलता की इस बात का कोई उत्तर न दे, तुरंत ही कलावली बने श्री श्यामसुन्दर से इसप्रकार कहने लगी :
"अरी सखी कलावली....यह तो सब ही जानते है की एक स्त्री को दूसरी स्त्री के सामने कोई लज्जा नहीं करनी चाहिए....उसे तो किसी बात का भय और शर्म नहीं होनी चाहिए ..तुम ही बताओ क्या तुम्हे मुझसे किसी प्रकार का भय हैं??"


ऐसा सुन कलावली बिलकुल धीमी से आवाज़ में बोली :
" ओ श्रीराधा.....मैं किसी गायक की पुत्री नहीं हूँ....और न ही मैं कोई हार, वस्त्र और आभूषण उपहार में ग्रहण करती हूँ....इसलिए मुझे उपहार स्वरुप अपना आलिंगन प्रदान कर दो....वही मेरे लिए बहुत है.....मुझे और किसी चीज़ का लालच नहीं हैं...."


श्रीराधा ने पुनः कहा :
 "ओ सखी कलावली...यह क्या बात हुई....मेरी प्रबल इच्छा है कि मैं तुम्हे उपहार स्वरुप यह नए वस्त्र और आभूषण पहने हुए देखू.....तुम क्यों मेरे इस उपहार का तिरिस्कार कर रही हो....कृपा कर यह नए वस्त्र और आभूषण पहन लो....अगर तुम इन्हें अभी नहीं पहनोगी तो मैं तुम्हे जबरजस्ती अपने से पहनाउंगी...देखो तुम यहाँ अकेली हो....और हमलोग बहुत सारी सखियाँ है.... इसलिए भलाई इसी में है की तुम मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लो...."


ऐसा कह श्रीराधा ने अपनी सभी सखियों की आदेश दिया की कलावली को नए वस्त्र जबरजस्ती पहनाया जाये...ऐसा सुन..ललिता, विशाखा ने कलावली को उसके दोनों हाथो को पकड़ लिया.....और रुपमंजिरी पीछे जाकर उसकी चोली को खोलने का प्रयास करने लगी.....और सहसा ही कलावली के वक्षो से दो बड़े बड़े कदम्ब के फुल नीचे धरा पर गिर पड़े....जिसे देख श्रीराधा की हंसी छुट पड़ी और अपनी उस हंसी को रोक अपने हाथ अपने मुख पर रख कर कलावली की ओर मुख करके इसप्रकार कहने लगी...


श्रीराधा ने आश्चर्य करने का स्वांग करते हुए  कहा :
"अहा !!! अरी ओ कलावली....यह तुम्हारी चोली से क्या गिरा....???





और फिर श्रीराधा जी और सभी सखियाँ ताली बजा बजा हँसने लगी.....वातावरण पूर्णतया हास्य रस से भर गया.."

फिर श्री श्यामसुन्दर उन दो कदम्ब के फूलो को धरती से उठा वापस उन्हें अपन वक्षो से लगा और उसी नारी भेष में श्रीराधा जी की सास जटिला के घर जिसे जटिला की हवेली कहते थे, वहां इस मंशा से गए की श्रीराधा का प्रेमपूर्ण  आलिंगन तो मैं करके ही रहूँगा.....

इधर राधा जी और सभी सखिया भी जटिला की हवेली की और चल पड़ी .....

जटिला के द्वार पहुँच कलावली बने श्यामसुन्दर धरती पर गिरकर जोर जोर से रुदन करने लगे....

कलावली के वेष में श्री श्यामसुन्दर, जटिला को अपनी मनोव्यथा बताते हुए


किसी लड़की की रुदन की आवाज़ सुन जटिला घर से भर आई और कलावली को रोते देख इसप्रकार कहने लगी- :
"तुम कौन हो बेटी ! तुम कहाँ से आई हो? तुम इसप्रकार क्यों रो रही हो? क्या किसी ने तुम्हारा कुछ अहित किया है....अपने यह आसू पोंछो और मुझसे सबकुछ कहो"



कलावली बने श्यामसुन्दर ने रोना सा मुंह बनाये जटिला से इसप्रकार कहा -
" ओ काकी... देखो न में कितनी दुर्भाग्यशाली हूँ, मैं बरसाना से आई हूँ, और में राधा की मौसी की बेटी हूँ, और राधा से मेरा स्नेह बचपन से ही था, और आज में स्नेहवश आज उससे बहुत दिनों के बाद मिलने के लिए जावट आई हूँ...लेकिन हाय रे मेरा दुर्भाग्य..राधा ने तो मेरी और स्नेह से देखा भी नहीं और न ही मुझे गले से लगाया..."


कलावली ने पुनः कहा -
"वो तो मुझे देख कर एक बार मुस्काई भी नहीं....और न हे मेरी कुशलक्षेम के बारे में मुझसे पूछी....अब मेरे जीवन का क्या मोल रह गया....अब में अपन यह जीवन यही खतम कर लुंगी आपके सामने....आप तो स्वयं जानती होंगी कि मैं भला क्या क्या अपराध करी होंगी जिससे राधा मेरे से इसप्रकार रुस्ठ है....फिर भी अब आप ही उससे पुछो कि वो मुझसे इस प्रकार का व्यवहार क्यों कर रही हैं...."


कलावली से इसप्रकार सुन जटिला ने कहा :
"शांत हो जाओ बेटी....चिंता मत करो...तुमने कुछ अपराध नहीं किया होगा...मैं जल्द ही इस बात को सुलझा दूंगी और राधा से तुम्हारा स्नेह वापस करवा दूंगी......"



ऐसा कह जटिला श्रीराधा जी के पास गयी...और वहां उसने श्री राधा जी को अपने सखियों के बीच पाया...


तब जटिला ने ललिता से कहा- :
"अरी ओ ललिता ! ये मेरी बहु आज ऐसी मनोदशा में क्यों है....उसकी मौसी कि बेटी उससे मिलने के लिए उसके गाँव से आई हैं और वो उसकी उपेक्षा कर रही हैं...वो उससे विनर्मतापूर्वक बात क्यों नहीं कर रही?"


फिर जटिला ने श्रीराधा जी को संबोधित करते हुए कहा- :
 "ओ मेरी प्यारी पुत्री ! जरा देखो तुम्हारी वो दुखी बहिन ने अपने आँसुओ से अपने पुरे वस्त्र गिले कर लिए हैं....उसकी ये दशा देख मेरा हृदय बहुत ही व्यथित हो रहा है.....मुझसे उसका दुःख नहीं देखा जा रहा हैं....जाओ उसको गले से लगाओ....उसकी कुशलक्षेम पुछो....उससे प्यार से विनर्मतापूर्वक बाते करो..."


श्रीराधा ने कहा - :
"मेरी प्रिय सासू माँ ! मैं निश्चित ही आपके निर्देशों का पालन करुँगी....आप ख़ुशी ख़ुशी अपने कक्ष में जाईये...हम सभी हमउम्र की सखियाँ तो ऐसे ही हँसी ठिठोली करती रहती है....हमारा रूठना मनाना तो ऐसे ही चलता है....पल में रूठना और पल में मनाने से ही परस्पर स्नेह की वृद्धि होती है....क्या आपको शोभा देता है, हम सखियों के प्रेमपूर्ण झगडे के बीच में बोलते हुए..."


जटिला ने पुनः कहा :
 "ओ मेरी प्यारी बहु राधा..अब तुम कुछ भी मत बोलो...खड़ी हो और तुरंत जाकर सबसे पहले अपनी बहिन के गले लगो....उसके भोजन का प्रबंध करो और उसे प्रेमपूर्वक भोजन करवाओ..में तुमसे बड़ी हूँ, इसलिए मेरे इस आदेश का पालन करो...."


श्रीराधा जी जटिला से कहा :
" ओ माँ जी! मैं आपके इस निर्देश का पालना करने के लिए सहर्ष तैयार हूँ, परन्तु आप भी मेरी एक बात सुनो....इस लड़की ने कुन्द्लता के साथ बहुत ही अभद्र व्यवहार किया है.....और कठोरता से बात की है....इसलिए मैं इससे रुष्ट हूँ..... अगर ये कुन्दलता से क्षमा मांगे और कुन्दलता इसे गले से लगा ले तो मैं जो आपने कहा वो करने को तैयार हूँ..."

श्रीराधा ने जटिला से कुन्दलता के बारे में ऐसा इसलिए कहा क्योकि वो जानती थी की.....कुन्दलता उसके सामने कभी भी श्री श्यामसुंदर को गले नहीं लगाएगी....और इस बात का फायदा श्री राधारानी ने खूब उठाया.....


राधाजी के द्वारा इस प्रकार कहने से कुन्दलता ने तुरंत कहा :
"ओ काकी...आपकी बहु राधा झूठ बोल रही है.....कलावली ने मुझसे किसी भी प्रकार से कोई दुर्व्यवहार नहीं किया और न ही मुझसे कठोरता से बात की है.....मैं उससे रुष्ट बिलकुल भी नहीं हूँ..."


फिर श्रीराधा जी ने साहसपूर्वक कुन्दलता से कहा :
 "अरी कुन्दलता !! तुम मेरी सासु माँ से झूठ कैसे बोल सकती हो.....अगर तुम कलावली से रुष्ट नहीं हो और तुम सही में उससे प्रसन्न हो तुम क्यों नहीं हम सबके सामने उसे गले से लगा लेती..."


श्रीराधा जी की ऐसे बाते सुन कुन्दलता चुप हो गयी और सिर नीचे किये एक ताक से धरती की ओर देखने लगी....उसे इस मुद्रा में देख श्रीराधा जी ने फिर चालाकी से जटिला से कहा -
"अब आप ही देख कर निश्चय कर लो सासु माँ कौन झूठ बोल रहा है...."




यह सब सुन जटिला ने कहा :
"निश्चय ही....मुझे लगता है कि, कुन्दलता तो इस सुन्दर रमणी लड़की को गले से नहीं लगाना चाहती.....कुछ तो गड़बड़ है...कुन्दलता निश्चय ही इस सुंदरी से रुष्ट है...अब इसमें किसे संदेह नहीं हो सकता है... मेरी बहु सत्य कहती है..."


जटिला ने पुनः कहा :
"अरी कुन्दलाता !!! तुम कलावली को क्षमा क्यों नहीं कर देती? तुम्हे प्रसन्न रखने के लिए मैं कुछ भी करुँगी पर इस सुन्दर रमणी लड़की को क्षमा कर इसे गले से लगा लो, देखो में तुम्हारी माँ सामान हूँ, और तुमसे हाथ जोड़ कर प्रार्थना करती हूँ, कि तुम इसे गले से लगा लो...नहीं तो तुम्हे मेरे सिर की सौगंध हैं..."

जटिला के द्वारा इसप्रकार कहने पर भी जब कुंदलाता अपने स्थान से नहीं हिली तो ललिता जी ने कहा :
 "अरी ओ कुन्दलता !!! बड़ी निष्ठुर हो तुम, तुम्हे काकी की सौगंध का जरा सा भी भय नहीं....अब तुम स्वयं देखो तुम्हारी बुद्धि कैसी है...चलो अभी कलावली को गले से लगा लो"



ऐसा कह उन सभी सखियों से कुन्दलता को कलावली बने श्री श्यामसुंदर को जबरजस्ती एक दुसरे के गले से लगा दिया.... अगर जटिला वहां न होती तो वो सभी सखियाँ स्वयं को ठहाके लगा कर हँसने से न रोक पाती....फिर भी उन्होंने अपने अपने आँचल से अपने मुह को ढक कर मन ही मन में बहुत हंसी जा रही थी...


उसके पश्चात... जटिला ने श्रीराधा से कहा :
"ओ प्यारी बहु राधा..अब तुम अपने बहिन से प्रेमपूर्वक बाते करके इसे गले से लगाओ..."




ऐसा कह जटिला ने कलावली बने श्यामसुंदर की बाहें पकड़ श्रीराधा जी के हाथ में दे दी और उन्हें जबरजस्ती गले मिलवाया और दोनों को इसप्रकार कहने लगी. :
" मैंने देखा की ये तुम्हारी बहिन कैसे राधा के इस प्रेम के लिए कब से आंसू बहाए जा रही थी इसलिए ओ राधा अब तुम इसके के ये आंसू प्यार से अपने आँचल से पोछ दो और मिलजुल कर रहो और परम स्नेह के साथ कलावली को भोजन करवाओ"

ऐसा कह जटिला वहा से कुछ ही दुरी पर अपने कक्ष में आराम करने चली जाती हैं....

उसके बाद श्यामसुंदर ने अपना स्त्री वेष उतार कर इस प्रकार सभी सखी और राधा जी से व्यंगपूर्ण शैली में कहा :
 "देख लिया न आखिर जीत मेरी ही हुई.."





ऐसा सुनते ही ललिता ने कटाक्ष करते हुए हँसते हुए इसप्रकार कहा :
 "अरे तुमने तो कुन्दलता को गले से लगा कर आधा ही आनंद दिया है.....क्यों नहीं तुम उसे पूर्ण आनंद देते....."




ललिता की यह बात सुन कुन्दलता भड़कर कर बोली :
 "ओ ललिते क्या कोई भाई सच्चे हृदय से अपनी बहिन को गले नहीं लगा सकता? क्या कोई पिता सच्चे हृदय से अपनी पुत्री को गले नहीं लगा सकता.... तुम्हारे स्वयं के अंदर ऐसे भावनाओ की अग्नि निरंतर दहकती रहती है...इसलिए तुम सभी को अपने जैसे समझती हो..."


ऐसा कह कुन्दलता वहां से गुस्से में निकल जाती है, और सभी सखियाँ उसे मनाने को उसके पीछे पीछे दौड़ी दौड़ी जाती हैं...और इधर जटिला के हवेली में दोनों प्रेमी युगल श्री श्यामसुंदर और श्रीराधा अकेले बचे अपने एक दुसरे के कमलनयनो में अपने ही प्रतिबिम्ब को निहारने में मग्न हो जाते है.......



वास्तव में श्री श्यामसुंदर की ये लीलाए बहुत ही अद्भुत है.....जिसमे छल और कपट लेश मात्र भी नहीं है.....उनकी ऐसी लीलाओ में तो माधुर्य है, लालित्य है....जिससे हर किसी सुनने वाले के ह्रदय को एक निश्चल प्रेम की भावना का सन्देश मिलता है...


आप सभी आज भी ब्रज मंडल के जावट गाँव में जटिला की हवेली के दर्शन कर सकते हैं.... जहाँ पर श्री श्यामसुन्दर जी ने इस प्रकार की बहुत सारी लीलाए  की थी....आज भी जावट गाँव में जटिला की हवेली में राधा कान्त जी के अनुपम श्री विग्रह के दर्शन होते हैं.....


जावट गाँव में जटिला की हवेली


श्री राधाकांत बिहारी जी

         जटिला, कुटिला और अभिमन्यु का श्री विग्रह

मुझे आशा है आप सभी को श्री श्यामसुंदर जी की यह लीला जरुर पसंद आई होगी......जो की पूर्णतया माधुर्य, लालित्य, और हास्य रस से परिपूर्ण है !


श्री राधा श्यामसुन्दर जी की इस दिव्य लीला का मधुर चित्रण श्री धाम वृन्दावन के एक बहुत ही प्रसिद्ध और रसिक संत श्री विश्वनाथ चक्रवती ठाकुर जी बहुत ही अलौकिक ढंग से अपने एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ “श्री चमत्कार चन्द्रिका“ में सविस्तार पूर्वक किया है….मैंने भी श्री भगवान की इस दिव्य लीला को श्री धाम वृंदावन के सुप्रसिद्ध रसिक संत श्री विश्वनाथ चक्रवती ठाकुर जी के ग्रन्थ "श्री चमत्कार चन्द्रिका" में पढ़ा था.... इस कथा को विस्तार से पढने के लिए आप सभी श्री विश्वनाथ ठाकुर जी रचित "श्री चमत्कार चन्द्रिका" नामक ग्रन्थ पढ़ सकते हैं.... मैंने तो प्रेमवश यहाँ आप सभी लोगो के साथ इस सुधा रस के कुछ अंश आप सभी को बाटने हेतु प्रकाशित किया है……


श्री विश्वानाथ चक्रवती ठाकुर जी महाराज 

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This Holy Katha Source is "Shri Chamatkar Chandrika"
by
Shri Vishwanath Chkravati Thakur Ji Maharaj
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उपर्युक्त पोस्ट में भावों को छोड़, अगर किसी भी तरह की शाब्दिक लेखन और शाब्दिक व्याकरण संबंधी त्रुटी रह गयी हो तो कृपा कर क्षमा कीजियेगा....

!! जय जय गायिका वेषधारी श्री श्यामसुन्दर जी !!
!! जय जय श्री राधा रानी जी !!

                                  

3 comments:

  1. krishna ko samarpit aapki yeh bhakti, hume inspire krti hai..bahot hi achi tarah se aapne krishna radhe ki sbhi leelayun ka varnan kia hai.,.
    radhe radhe

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  2. bahut!! bahut!! bahut!!!anandmaye lela hi !!
    jai ho !! thnx
    .•♥•,कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् :.•♥•,
    ....(¯`•´¯)♥•.श्री कृष्ण: शरणम् मम: !!
    .....`.♥•.,.(¯`•´¯)♥•.श्री​ कृष्ण: शरणम् मम: !!
    .......(¯`•´¯)♥.•♥•.श्री कृष्ण: शरणम् मम: !!´
    ........`•♥.,.•´♥•.श्री कृष्ण: शरणम् मम: !!
    .•♥•,श्री राधे..!!.•♥•

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  3. jai shree krishna
    apne jis prakar is leela ko btaya hai aisa laga mano sab kuch meri ankho k samne ho raha hai...
    Radhe Radhe

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